AI-generated Summary, Reviewed by Patrika
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जगदलपुर। छत्तीसगढ़ के बस्तर व इससे सटे ओडिशा के जनजातिय समुदाय में लोकप्रिय ' चापड़ा चटनी ' का स्वाद अब इन ग्रामीण इलाकों से उठकर महानगरों तक अपने स्वाद का जादू बिखेर रहा है। इस अहम व्यंजन को खास बनाने के लिए ओडिशा व छत्तीसगढ़ दोनों ने ही जीआई
( जियोग्राफिकल इंडेक्स ) टैग हासिल करने होड़ मची थी। जीआई टैग हासिल करने छत्तीसगढ़ की अपेक्षा ओडिशा ने ज्यादा सक्रियता दिखाई। इस वजह से वह इसका हकदार हो गया। इस मामले में छत्तीसगढ़ सरकार पिछड़ गई है। ओडिशा प्रांत में ' चापड़ा चटनी ' को ' काई चटनी ' के नाम से पहचाना जाता है।
आम तौर पर ' चापड़ा चटनी ' या ' काई चटनी ' दरअसल लाल चीटियों वाली चटनी के नाम से पहचानी जाती है। ओडिशा सरकार ने इसकी बुनावट व अलग स्वाद के मामले में जीआई टैग हासिल किया है। ज्ञात हो कि पुरातन समय से ही मानव छोटे कीट- पतंग को अपना आहार बनाते आया है। सभ्यता के साथ इनमें से कुछ को उसने छोड़ दिया है। इसी तारतम्य में चापड़ा चटनी भी आती थी। पर इसके स्वाद का जादू अब तक लोगों को लुभाता आ रहा है। इसलिए बस्तर व ओडिशा के मयूरभंज इलाके में हाट-बाजार में चापड़ा चटनी को बेचते- खरीदते आसानी से देखा जा सकता है। जगदलपुर के इतवारी बाजार में भी बीस से तीस रूपए दोना में यह चटनी आसानी से उपलब्ध है। एक दोना लगभग तीस ग्राम के आससपास चापड़ा चटनी को समेटे हुए होता है। शौकीन इसकी तलाश में बाजार के अलावा आसपास के जंगल- झुरमुट की टोह लेते रहते हैं।
विश्व भर में अलग अलग है मान्यता
इंडोनेशिया, चाइना, थाइलैंड में भी चापड़ा चटनी लोकप्रिय है। यहां चीटियों के लार्वा- प्यूपा को प्रोटीन, मिनरल्स व विटामीन देने वाले पोषक तत्प7 के तौर पर आहार में शामिल किया जाता रहा है। भारत के बस्तर जनजातिय इलाके में इसे रोग दूर करने, वायरल बुखार दूर करने व कोमोत्तेजक औषधि महत्व का आहार माना जाता है।
घोसला बनाकर रहती हैं चीटियांपेड़ों की पत्तियों के बीच इन लाल चीटियों की बस्ती रहती है। यह दो से तीन पत्तियों को लपेटकर घोसला नुमा आकृति में बुन लेती हैं। इन्हीं बस्तर में इन लाल चीटियों की गतिविधि व जीवन चक्र चलता रहता है। जिन पेड़ की डंगाल में इनके छत्ते पाए जाते हैं। उसके आसपास से गुजरने से इनके तीखे दंश का भी शिकार लोग होते रहते हैं।
हमसे चूक हो गई
चापड़ा चटनी के लिए जीआई टैग हासिल करने हमसे चूक हो गई। एक कीट विज्ञानी होने के नाते मैँने भी इस प्रोजेक्ट पर काम किया था। शासकीय प्रयास की कमी व व्यस्त्ता की वजह से सही समय में प्रयास न करने का अफसोस रहेगा। राज्य सरकार को भी चाहिए कि अन्य जिन तथ्यों पर जीआई टैग लिया जा सकता है, उसमें बढ़चढ़कर सहयोग देवें।
डा सुशील दत्ता, प्राणीशास्त्री, पीजी कालेज जगदलपुर
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Published on:
02 Feb 2024 12:51 am


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