AI-generated Summary, Reviewed by Patrika
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- विनय कौड़ा, अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार
'धुरंधर' को मिली व्यापक सफलता केवल एक फिल्म की लोकप्रियता नहीं है। यह भारत-पाकिस्तान संबंधों की जटिल भू-राजनीति, खाड़ी देशों में लगे प्रतिबंधों और राष्ट्रीय पहचान बनाम वैश्विक संवेदनशीलता के टकराव का संकेत है। यह फिल्म ऐसे समय आई है जब भारत अपनी विदेश नीति में अधिक आत्मविश्वास और सुरक्षा-केंद्रित दृष्टि के साथ खड़ा है। 'धुरंधर' का कथ्य परदे पर घटती घटनाओं तक सीमित नहीं रहता, बल्कि भारत की उभरती रणनीतिक आत्म-छवि का प्रत्यक्ष विस्तार बन जाता है।
फिल्म का कथानक भारत की खुफिया क्षमता को उभारते हुए राष्ट्रीय सुरक्षा को किसी अमूर्त अवधारणा के बजाय एक जीवित और अनिवार्य दायित्व के रूप में प्रस्तुत करता है। यहां राष्ट्र केवल भू-भाग नहीं, बल्कि उत्तरदायित्व है। दुश्मन किसी एक देश तक सीमित नहीं, बल्कि वह मानसिकता है, जो हिंसा को नीति और आतंक को औजार मानती है। इस अर्थ में 'धुरंधर' सिनेमा की सीमाओं के भीतर रहते हुए भी भारत की सुरक्षा-नीति का वैचारिक प्रतिरूप बन जाती है। दर्शकों ने इसे मनोरंजन से आगे बढ़कर आत्म-स्वीकृति की तरह देखा। समानांतर रूप से, 'धुरंधर' को छह खाड़ी देशों- बहरीन, कुवैत, ओमान, कतर, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात- में प्रदर्शित करने की अनुमति नहीं मिली। कारण बताया गया कि फिल्म की विषयवस्तु 'पाकिस्तान-विरोधी' है। यह तर्क एक बुनियादी प्रश्न खड़ा करता है। क्या आतंकवाद और उसे संरक्षण देने वाली शक्तियों की पहचान किसी राष्ट्र के विरुद्ध होना है या यह वैश्विक सुरक्षा की अनिवार्यता है? जिन खाड़ी देशों में दशकों से भारतीय सिनेमा को स्वीकृति मिलती रही है, वहां इस फिल्म पर प्रतिबंध जैसा निर्णय क्षेत्रीय रणनीतिक दबावों की ओर संकेत करता है। इससे स्पष्ट होता है कि सिनेमा अब केवल कला या उद्योग नहीं, बल्कि वैश्विक भू-राजनीति का सक्रिय घटक बन चुका है, जहां छवियां, कथाएं और संवाद राजनयिक बयानों जितने प्रभावशाली हो गए हैं।
फिल्म के केंद्र में भारत-पाकिस्तान का खुफिया द्वंद्व है-वह संघर्ष जो औपचारिक युद्धों से कहीं गहरे स्तर पर संचालित होता है। कराची के लयारी क्षेत्र की वास्तविक घटनाओं से प्रेरित कथानक भारतीय खुफिया अधिकारी की नैतिक दुविधाओं को उभारता है और यह स्पष्ट करता है कि लोकतांत्रिक राष्ट्रों के लिए सुरक्षा का मार्ग केवल शक्ति का प्रयोग नहीं, बल्कि उत्तरदायित्व और कठिन नैतिक निर्णयों की सतत परीक्षा होता है। खाड़ी देशों की प्रतिक्रिया यह भी दिखाती है कि उन्होंने भारत और पाकिस्तान के साथ संबंधों को संतुलित रखने के बजाय एकतरफा निर्णय लिया। पाकिस्तान के साथ धार्मिक एवं सैन्य संबंध और बड़ी प्रवासी आबादी इन फैसलों को प्रभावित करती है। किंतु यहां एक असहज प्रश्न उभरता है। क्या आतंकवाद जैसे मुद्दे को रणनीतिक सुविधा के नाम पर धुंधला किया जा सकता है? क्या सांस्कृतिक अभिव्यक्ति को केवल इस भय से सीमित किया जाना चाहिए कि वह किसी को असहज कर देगी? भारत-पाकिस्तान संबंध द्विपक्षीय ढांचे तक सीमित नहीं हैं। वे खाड़ी क्षेत्र, मध्य एशिया और भारत-अमरीका संबंधों की व्यापक वैश्विक रणनीति से भी जुड़े हुए हैं। आतंकवाद के प्रति भारत का रुख स्पष्ट और असंदिग्ध है। एक मूल प्रश्न यह भी उभरता है कि क्या सांस्कृतिक अभिव्यक्ति और राजनीतिक यथार्थ एक साथ आगे बढ़ सकते हैं? उत्तर सरल नहीं, पर जरूरी है। वैश्विक दर्शकों की संवेदनाएं भिन्न हो सकती हैं, पर सत्य को रणनीतिक मौन के नीचे दबा नहीं सकते। संतुलन आवश्यक है, पर आत्म-संकोच की कीमत पर नहीं।
'धुरंधर' के इर्द-गिर्द चला विमर्श दर्शाता है कि भारतीय दर्शक अब विशेषकर हॉलीवुड का उपभोक्ता बनकर रहना नहीं चाहते। वे अपने अनुभव, अपनी स्मृति और सुरक्षा-दृष्टि को भारतीय परिप्रेक्ष्य से अभिव्यक्त करने वाले यथार्थवादी सिनेमा के इच्छुक हैं। जिस प्रकार शीतयुद्ध के दौर में हॉलीवुड ने अमरीकी रणनीतिक चेतना को वैश्विक पर्दे पर उतारा था, उसी तरह भारतीय सिनेमा भी आज अपनी भू-राजनीतिक वास्तविकताओं को स्वर देने के चरण में है। यह प्रक्रिया असहज हो सकती है, पर एक आत्मविश्वासी राष्ट्र के लिए यह अपरिहार्य है।
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Updated on:
16 Dec 2025 04:19 pm
Published on:
16 Dec 2025 04:18 pm


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