AI-generated Summary, Reviewed by Patrika
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BRICS Gold Reserves: 233 साल पहले 2 अप्रैल 1792 को अमेरिकी डॉलर शुरू हुआ था, जो बीते कई दशकों से वैश्विक करेंसी बना हुआ है। इसके ग्लोबल करेंसी बनने की शुरुआत एक समझौते से हुई थी। दूसरा विश्वयुद्ध शुरू होने के बाद साल 1944 में ब्रेटन वुड्स डील हुई थी। इसमें 44 देशों के प्रतिनिधि शामिल हुए थे। अमेरिका ने सभी देशों को इस बारे में मनाया कि वे सोने की बजाय डॉलर में कारोबार करें। ज्यादातर देशों ने अमेरिकी बैंकों में सोना जमा करके डॉलर लिया और डॉलर में कारोबार शुरू किया। उन्हें भरोसा दिलाया गया था कि वे जब चाहें, तब डॉलर जमा कराकर सोना वापस ले सकते हैं।
इस तरह दुनिया के ज्यादा से ज्यादा देशों ने डॉलर का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया और डॉलर ग्लोबल करेंसी बन गया। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि अमेरिका ने डॉलर को वित्तीय हथियार के रूप में इस्तेमाल किया। हाल ही में रूस-यूक्रेन युद्ध के दौरान हम यह देख चुके हैं। लेकिन अब दुनिया के कुछ बड़े देश डॉलर के दबदबे से आजादी चाहते हैं। आइए जानते हैं कैसे-
ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका जैसे उभरते देशों का समूह 'ब्रिक्स' (BRICS) लगातार सोना इकट्ठा कर रहा है। इस तरह वे अमेरिकी डॉलर पर अपनी निर्भरता को तेजी से कम करना चाहते है। हालांकि, आधिकारिक तौर पर ब्रिक्स देशों के पास वैश्विक स्वर्ण भंडार का लगभग 20% हिस्सा है। लेकिन अपने रणनीतिक सहयोगी देशों के साथ मिलकर अब वे सामूहिक रूप से वैश्विक स्वर्ण उत्पादन के लगभग 50% हिस्से पर नियंत्रण रखते हैं।
इस रणनीति में रूस और चीन सबसे आगे हैं। साल 2024 में चीन ने 380 टन और रूस ने 340 टन सोने का उत्पादन किया। इसी रणनीति पर चलते हुए, सितंबर 2025 में ब्राजील ने 16 टन सोना खरीदा, जो 2021 के बाद उसकी पहली बड़ी खरीद थी।
ब्रिक्स सदस्य देश सोने का उत्पादन बढ़ा रहे हैं और उसकी बिक्री कम कर रहे हैं। साथ ही, वे अंतरराष्ट्रीय बाजार से भी बड़ी मात्रा में सोना खरीद रहे हैं। आंकड़ों के अनुसार, 2020 से 2024 के बीच दुनिया के 50% से अधिक सोने की खरीद ब्रिक्स देशों के केंद्रीय बैंकों ने की है।

एक्सपर्ट्स के अनुसार, सोने के भंडार पर ब्रिक्स देशों का बढ़ता नियंत्रण अमेरिकी डॉलर के प्रभुत्व वाले वैश्विक वित्तीय ढांचे में तनाव का संकेत है। हालांकि, डॉलर अभी भी प्राइमरी रिजर्व करेंसी है। लेकिन अब इसकी सर्वोच्चता पर धीरे-धीरे सवाल उठाए जा रहे हैं। आज वैश्विक व्यापार में ब्रिक्स देशों की हिस्सेदारी लगभग 30% है। व्यापार और भंडार के लिए पश्चिमी वित्तीय ढांचे, विशेष रूप से अमेरिकी डॉलर पर निर्भरता कम करना इस समूह का लंबे समय से उद्देश्य रहा है।
रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद जब अमेरिका और पश्चिमी देशों ने रूस के विदेशी मुद्रा भंडार के एक बड़े हिस्से को 'फ्रीज' (जब्त) कर दिया, तब इन देशों की सोच में बड़ा बदलाव आया। इस घटना ने साबित कर दिया कि डॉलर में रखे गए विदेशी भंडार भू-राजनीतिक जोखिमों के अधीन हैं। इसके बाद से केंद्रीय बैंकों ने उन एसेट्स को प्राथमिकता देना शुरू कर दिया जो पॉलिटिकल न्यूट्रल हों और जिन पर बाहरी नियंत्रण न हो।

भारत, चीन और रूस अब दुनिया के सबसे बड़े स्वर्ण भंडारों वाले देशों में शामिल हैं। इसके परिणामस्वरूप, ब्रिक्स देशों के विदेशी मुद्रा भंडार में सोने की हिस्सेदारी बढ़ी है और डॉलर की हिस्सेदारी में कमी आई है।
पिछले दशक में ब्रिक्स देशों के बीच स्थानीय मुद्राओं में व्यापार बढ़ा है। लगभग एक-तिहाई व्यापार अब डॉलर को छोड़कर किया जा रहा है। भारत-रूस और चीन-ब्राजील के बीच स्थानीय मुद्रा में व्यापारिक समझौते इसके उदाहरण हैं, जिनका उद्देश्य लेनदेन की लागत कम करना और प्रतिबंधों के जोखिम से बचना है।
ब्रिक्स देशों के सेंट्रल बैंकों द्वारा सोने की खरीदारी में आए हालिया उछाल को रिस्क मैनेजमेंट और डायवर्सिफिकेशन स्ट्रैटजी के रूप में देखा जा रहा है। सोना एक न्यूट्रल और प्रतिबंध-मुक्त एसेट है। बात सिर्फ यहीं खत्म नहीं होती। ब्रिक्स देश 'पेट्रोलडॉलर' सिस्टम को भी झटका देना चाहते हैं। चीन का इलेक्ट्रिक वाहनों और रिन्यूएबल एनर्जी पर जोर देना डॉलर लिंक्ड कमोडिटी प्राइसिंग पर निर्भरता को धीरे-धीरे कम करने की कोशिश का हिस्सा है।
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Published on:
28 Dec 2025 07:00 pm


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